Wednesday, June 6, 2007

हरियाली और मोहब्बत


लीजिए विश्व पर्यावरण दिवस यानि की World Environment Day गुज़र भी गया और हम कुछ न कर सके। दिन भर न्यूज़ चैनलस पर बढ़ते प्रदूषण और ग्लोबल वॉर्मिंग की ख़बरें देखीं और हम बस डर डर कर ही रह गए... कि हाय हाय क्या होगा जब कुछ होगा तो...
अभी पिछले दिनो दिल्ली का तापमान कुछ उपर क्या गया.... न्यूज़ चैनलस की पहली हैडलाइन बन गई....... न्यूज़ चैलनस के एंकर अपने एसी स्टूडियो में बैठकर बढ़ती गर्मी और लू के थपेड़ों की ख़बरों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करते रहे। हालांकि इससे पहले भी कई बार तापमान 44 डिग्री और 45 डिग्री और मुझे खु़द अच्छी तरह याद है कि 46 डिग्री तक भी पहुंचा है। लेकिन क्योंकि आजकल हर चीज़ का ढीकड़ा (मैने 4 साल एक न्यूज़ चैनल में काम किया है) ग्लोबल वॉर्मिंग के सर फोड़ा जाता है तो हमें भी दिल्ली का वो बेहद सामान्य तापमान बेहद असामान्य मालूम दिया। ख़ैर बेकार बातों में वक़्त न ज़ाया किया जाए.... बल्कि पर्यावरण के बारे में हम क्या कर सकते हैं ये सोचना ज़्यादा बेहतर रहेगा। ज़रा सोचिए अगर हमारे शहर में थोड़ी सी हरियाली थोड़े से पेड़ पौधे और होते तो क्या होता... ये होता कि हर प्यार करने वाले को उसके हिस्से की 'Privacy' यानि की एकांत मिलता..... आज कल तो ये हालत है कि चिड़िया घर, लोधी गार्डन, डियर पार्क, सफ़दर जंग के मकबरे और इंडिया गेट के हर पेड़ और हर झाड़ी के आगे प्रेमी जोड़े क़तार लगाकर अपनी बारी का इंतज़ार करते हैं। और कुछ बेचारे तो इतनी जल्दी में होते हैं कि वो झाड़ी और पेड़ के साए का भी तकल्लुफ़ नहीं करते।
कभी सोचा है आपने हम लोग अपने बाद अपने बच्चों के लिए विरासत में क्या छोड़ कर जाएंगे... चंद सूखी हुई झाड़ियां और चंद बूढ़े पेड़ जो किसी भी वक़्त गिरने को तैयार खड़े हैं।
यक़ीन मानिए हरियाली और पेड़ पौधे बहुत अच्छी चीज़ होते हैं.... बहुत से फ़ायदे हैं इनके जैसे की दुनिया में फैल रही अशांति, हिंसा और आतंकवाद पर हम हरियाली से ही काबू पा सकते हैं। चंद झाड़िय़ां और पेड़ लगाकर हम दुनिया में आपसी प्यार और इश्क़ो मोहब्बत क़ायम रख सकते हैं।
वैसे इसके अलावा एक आध फ़ायदे और भी हैं हरियाली के जैसे की कुछ लोगों का मानना है कि हरियाली से वातावरण का प्रदूषण कम हो सकता है, कुछ का कहना है कि इससे वातावरण का संतुलन कायम रहेगा और कुछ का तो ये भी मानना है कि हरियाली से दूसरे जीव जंतु जैसे की पशु और पक्षियों का भी भला होगा..... ख़ैर उससे हमे क्या, प्रदूषण और पशु पक्षियों से हमारा दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है...
आइये हम ये अहद करें कि दुनिया में अमन, चैन और मोहब्बत बरक़रार रखने के लिए पेड़ पौधे लगाएंगे और जो लगे हैं उनका ख़्याल रखेंगे।

Tuesday, June 5, 2007

'फ़िर आज किसी का ख़त आया'

"प्यारी आपी आदाब
हम लोग यहां ख़ैरियत से हैं और ख़ुदा से दुआ है कि आप लोग भी ख़ैरियत से होंगे।
आपका ख़त मिल..... जवाब देने में देर हो गई......"
आपको याद है आपने आख़िरी बार किसी को ख़त कब लिखा था, या आपके नाम किसी
की तहरीर कब आई थी। शायद सालों पहल, जब दूरदराज़ रहे
रहे रिश्तेदारों, और दोस्तों की ख़ैरियत जानने और उन्हें अपना हाल सुनाने के लिए
ख़तो किताबत हुआ करती थी। रिश्तेदारों और दोस्तों की लिखाई देखकर ही आंखे गीली
हो जाया करती थीं। ईद, बकरा ईद, दीवाली, क्रिसमस और नए साल पर ग्रीटिंग्स
भेजे जाते थे.... ईद बकरा ईद और दीवाली पर ख़त पहुंचाने आए डाकिए
भी बख़्शीश लिए बग़ैर दरवाज़े से टलते नहीं थे। फिर टेलीफोन घर घर पहुंच गया और
फोन पर ही एक दूसरे की ख़ैरियत पता चलने लगी.... फिर आया इंटरनेट का ज़माना..
ईमेल और ईग्रीटिंग्स का भी जो़र निकला.... और फिर HAPPY B'DAY और
HAPPY NEW YEAR के एसएमएस से ही काम चलने लगा। और अब वो दौर भी
ख़त्म ही समझिए... क्योंकि आज हम अपनी भागती दौड़ती ज़िंदगियों में इतने
खो गए हैं कि अपने दूरदराज़ रह रहे रिश्तेदारों और दोस्तों को याद करने का भी वक़्त
नहीं है.... अब पुराने दोस्तों को ORKUT पर ढूंढ लिया जाता है और बेगाने
लोगों और बेगानी societies से ही काम चला कर खुश हो लिया जाता है। हम भूल गए हैं कि
कहीं किसी शहर में... किसी क़स्बे में कहीं किसी छोटे से गांव में हमारा एक रक़ीब
रहता है जो इंटरनेट नहीं जानता जिसके पास मोबाईल फोन भी नहीं है.. उसे आज
भी हमारे ख़त का इंतज़ार है... वो रोज़ डाकिए का इंतज़ार करता है कि शायद हमने
उसके लिए कुछ भेजा हो... उसे इंतज़ार है हमारे ख़त का कि हम अपना हाल अपने हाथ से
लिखकर भेजें.. कुछ शिकायतें कुछ, शिकवे, कुछ प्यार मोहब्बत की बातें करें,
कुछ रूढें, कुछ उसे मनाएं, कुछ गए ज़माने की बातें ,
कुछ आने वाले अच्छे वक़्त की उम्मीदें,
कुछ पुराने किस्से कुछ पुराने नाम लें,
कुछ उसका हाल पूछें कुछ अपना बताएं,
उसे आज भी इंतज़ार है हमारे ख़त का.............

" फ़िर आज किसी का ख़त आया
ये रस्ता जंगल बाड़ी का
सदियों में किया तय लम्हों ने
इन सीधी सादी सतरों ने
इस हल्के फुल्के नश्तर ने
बे कैफ़ फ़ज़ा को बदला है
इक उम्र गई जो खोई थी
वो दौलते ग़म फिर बख़्शी है
फिर आज किसी का ख़त आया
इन सीधी सादी सतरों में
कोई उलझी उलझी बात नहीं
अश्कों की कोई सौग़ात नहीं
कहते हो हाल लिखो अपना
मसमूम हवा
बे आबो दवा
इक उम्र कटी
पर शहर नया
बे रंग क़लम
भीगा काग़ज़
गर बैढे लिखने क्या लिखें
तुम दूर सही
तुम मेहरम हो
पल भर को बंद करो आंखे
फिर छलके पानी प्याले से
फिर छिलके छिलके प्याज़ खुले
फिर आंख मिचौली खेल चले
सब पर्दे पर उतरे मंज़र
ये रास्त जंगल बाड़ी का
ये जोबन टुंड बबूलों का
ये मौसम पीले फूलों का
तुम दूर सही तुम मेहरम हो
सब देखोगे सब जानोगे"
"अशरफ़ आबिदी"

Monday, June 4, 2007

बहादुर कौन...

आप इनमें से किसे बहादुर कहेंगे.... वो जो चिड़ियाघर में शेर के पिंजरे में हाथ डालकर उसे इशार से अपनी तरफ बुलाए.... वो जो आधी रात को क़ब्रिस्तान की आख़िरी क़ब्र पर मोमबत्ती जलाने की हिम्मत रखता हो... या वो नेपाली गोरखा जो रात को गली में सीटी बजाता डंडा चलाता सबकी नींदे हराम करता है (उसका नाम ही बहादुर है इसलिए).... या वो जो हमेशा सच बोले और उसपर क़ायम रहे?

सच बोलिए और ज़िंदा रहिए......

हर दौर और हर समाज में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो सत्ता और ताक़त में बने रहने के लिए हक़ और सच्चाई को
दबाते और छुपाते रहे हैं... हक़ और उसूल ये कहता है कि जिस मुल्क में आप रहते हैं उसके पिछड़ेपन और
उसकी तरक़्की में सबकी हिस्सेदारी हो..... जिस घर में आप रहते हैं उसकी बदहाली और खुशहाली में
सभी घरवालों का हक़ हो... जिस जगह आप काम करते हैं वहां के फ़ायदे और नुकसान में सब शामिल किए
जाएं.....मगर जो लोग सत्ता में होते हैं वो ताक़त और फ़ायदा सबके साथ बांटना नहीं चाहते।
और इसीलिए हर दौर में सच बोलने वालों पर ज़ुल्म किए जाते रहे हैं और आगे भी ऐसा ही होगा। क्योंकि सच बोलना और उसपर क़ायम रहना आसान बात नहीं होती। आप भी अपने आस पास देखिए... आपके मुल्क, आपके शहर आपके मोहल्ले.. आपके ख़ानदान आपके घर आपके दफ़्तर में क्या ऐसा हो रहा है.... पहचानिए ऐसे लोगों को जो अपने बहुत सारे फ़ायदे के लिए आपका ज़रा सा फ़ायदा नहीं होने देते.... जो अपने थोड़े से नुकसान से बचने के लिए आपका बहुत सारा नुकसान कर रहे हैं। ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाइये और अगर आवाज़ नहीं उठा सकते तो कम से कम जो ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी कर रहे हैं उनकी आवाज़ में अपनी आवाज़ शामिल मत करिए।

"बोल की लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़ंबा अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल की जां अब तक तेरी है
देख की आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ हैं आंहें
खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने
फ़ैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्मों ज़ंबा की मौत से पहले
बोल की सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले"
"फ़ैज़ अहमद फ़ैज़"

Sunday, June 3, 2007

गर्मियां और इंडिया गेट

अगर आप दिल्ली में रहतें और गर्मी से परेशान हैं, तो कर तो आप कुछ नहीं सकते लेकिन... गर्मियों की रातों में इंडिया गेट ज़रूर घूम सकते हैं...... दिल्ली वालों का ये ख़ास शग़ल है। इंडिया गेट पर शाम 7 बजे के बाद आपको ऐसे हज़ारों परिवार दिखेंगें जो घर भर के साथ पिकनिक मनाने आते हैं। दादा- दादी, मम्मी -पापा, बच्चे और कभी कभी पड़ोसियों के बच्चे भी शामिल होते हैं। बच्चों के साथ बच्चा बनने की कोशिश में मोटी थुलथुल आंटियां गुब्बारों से फुटबॉल खेलती नज़र आएंगी..... उनकी इन हरकतों से बेज़ार हो चुके उनके पति या तो चादर पर सो जाते हैं यां आस पास की दूसरी लड़कियों को देख रहे होते हैं..... हम्म...... और इन सबके बीच आइसक्रीम वाले, गुब्बारे वाले, दाल के लड्डू बेचने वाले और कोल्डड्रिंग बेचने वाले आपके बीच में होकर निकलते हैं और आपको हर वो चीज़ ऑफर करते हैं जो आपको नहीं चाहिए.... लेकिन फिर भी आप खरीदेंगे क्यों ये तो आप ही जाने। और आज कल जो चीज़ इंडिया गेट पर सबकी अटेंशन चुरा रही है वो है 'शिकारा लवली चुस्की'.....हालांकि इंडिया गेट पर चुस्की बेचने वाले कई ठेले खड़े होते हैं लेकिन 'शिकारा लवली चुस्की' की बात कुछ जुदा है... यहां आपको 15 रूपए की चुस्की के साथ मुफ्त का मनोरंजन भी मिलेगा.....
तो ख़ैर इससे पहले की गर्मियां ख़त्म हो जाएं आप इंडिया गेट घूम आइये........ साथ में घर का बना हुआ खाना, एक चादर और अपनी फैमिली ले जाएंगे तो ज़्यादा मज़ा आएगा... मगर याद रहे इंडिया गेट पर परिवार के साथ ये मज़े अमूमन शाम 7 बजे के बाद ही किए जाते हैं.... उससे पहले वहां पारिवारिक गतिविधियों से कुछ हटकर गतिविधियां होती हैं जिन्हें आप तो ज़ाहिर है पसंद करेंगे लेकिन बच्चों की सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है।

Saturday, June 2, 2007

एक छोटी सी प्रेम कहानी

शहज़ादी बहुत देर तक क़िले की दिवार पर शहज़ादे के इंतज़ार में बैठी रही.... लेकिन शहज़ादा नहीं आया। जब दिन ढल गया और आसामन पर तारे झिलमिला उठे तो शहजा़दी बोझिल क़दमों से वापस लौट गई। शहज़ादी के लौटते ही शहज़ादा वहां पहुंचा मगर तब तक शहज़ादी जा चुकी थी। शहज़ादा सुबह तक क़िले की दिवार के नीचे बैठा रहा..... और जब एक एक करके तारे सुबह की रोशनी में ग़ायब होने लगे तो शहज़ादा भी लौट गया।..... उम्र भर दोनो को एक दूसरे से शिकवा रहा.....
लेकिन सोचने वाली बात ये है कि आख़िर हमेशा ही शहज़ादियां इतनी जल्दी में क्यों होती हैं और शहज़ादे हमेशा देर से क्यों आते हैं।